Prashn

रात्रि में यह कौन जगा?
परछाइयों में मूर्तिवत ठगा?
यह कौन एकाग्र है चित्त में
फैला है जो पूर्ण अस्तित्व में!
जो मेरी दृष्टि में है दृष्टा
शून्य संवेदनाओं का है सृष्टा!
हर अग्नि-परिभाषा का है जो निमित्त
हर प्रेम-आलिंगन में है संहित
अद्वितीयता में कौन ढला
यज्ञोपवीत यह कौन जला?
रात्रि में यह कौन जगा?
परछाइयों में मूर्तिवत ठगा?

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