Neend nahi Aati

नींद नहीं आती है मुझे अक्सर
रात-रात बदलता रहता हूँ करवटें
जाने किस पर अधिक हैं
मेरे माथे पर
या बिस्तर पर सलवटें

रात-रात उस कालिमा को
घूरता हूँ
जिसमें सिर्फ़ विध्वंस है
स्वयं का अंत
संसार का अंत
किन्तु फिर भी है कुछ
जो मरता नहीं
मिटता नहीं

रात-रात उस काली स्लेट पर
सब अक्षर मिटाता जाता हूँ मैं
जो उभरते हैं मानस-पटल पर
मानस जो जलता है
टी वी के मॉनिटर की भांति
ख़बरों से
और सिर्फ़ एक साक्षी की तरह
विचारों को उठते-गिरते देखता हूँ

फिर बंद कर देता हूँ टेलिविज़न
और उस आभा के मरने के बाद
बचता है ठीक बीचों-बीच
एक काला बिंदु जो धीरे-धीरे
विलुप्त हो जाता है
जाज्वल्यमान अन्धकार में

अन्धकार की अग्नि
जला रही है जगत
धू-धू कर सब कुछ शाश्वत
उस अन्धकार में कैसे खो पाऊँ मैं
उसी का तो प्रयास कर रहा हूँ उनींदा
असफल त्रस्त
कैसे निद्रा का चैन बन जाऊँ मैं
भूलकर उस एक भाव को
जो लपट की भांति उठ रहा है बार-बार

बस एक लपट और रात
मिटने के प्रयास में
प्रेम और भक्ति की आस में
उस ओम में जो गूंजता नहीं
उस टंकार में जो उठती नहीं
सिर्फ़ एक बचे खुर्राटे के विशवास में
जो दबा रहेगा किन्हीं रज़ाइयों में
अधजगा
बचा रहेगा किसी सुबकन की तरह
इस नीरव में
जिसमें सोने की असफलता ही
मेरी आखिरी सफलता है

बहुत सालों से चुपचाप सुन रहा हूँ मैं
तुम्हें
मेरे पुरोहित
इन संस्कृत-श्लोकों में कुछ दिख जाए
जो भी हो समाहित

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