Janamdin ki Bhent

तुम्हारे जन्म दिवस पर
नीरव में लपेटकर
चुपचाप कुछ भेज रहा हूँ

इस भेंट में आंसू हैं कुछ
कुछ थोड़ा सा प्रायश्चित्त
और बहुत सारा चित्त

इसमें नमस्कार से जोड़े हुए हाथों की
पूर्णता है
कुछ आनंद की सुरभि
बहुत सारी भूलों का सार
और ढेर सारा आभार

बहुत वजन है इस अर्पण में
इसीलिए हृदय में बहुत गहरे उतार
स्थैर्य में सहेज रहा हूँ

तुम्हारे जन्म दिवस पर
कुछ भेज रहा हूँ

शायद तुम्हें पता भी न चले
शायद मिले या न मिले
मेरे पास तो कोई डाकिया भी नहीं
न ही शब्द हैं बोलने के लिए
और पता भी कहाँ है?
इस छोटे से कोने के सिवाय?

हवा से भी पूछा था मैंने
कुछ ले जाय
थोड़ी सी सुगंध
वह भी ठहर गई यहीं
और यह सुरभि मुझे लौटा गई

यादें भी अब मुझे बिसरा गईं
मौन के बिना देने को
कुछ बचा नहीं
इसी मौन को परतों में
तुम्हारे अमानत मान
सहेज रहा हूँ

कभी-कभी जब सांझ में
कोई उच्छवास उठे
भीना-सा
जैसे घुप्प अंधेरे में
एक आभास उठे
झीना-सा
तो इसे छू लेना

शायद तुम्हारा भी
सुनहरा हो जाए हृदय
इसे छूने लेने से
पिघला हुआ
ऊपर उठता हुआ
बिना राख बिना धुआं

प्रत्येक किरण फिर लौट आए
एक लौ में केंद्रित
प्रत्येक तंतु
एक ही बिंदु बन जाए
हर शुआ

हर गुज़रते क्षण में
वही चुपचाप सहेज रहा हूँ

तुम्हारे नाम से कुछ
भेज रहा हूँ

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