Ek Vishal Sagar

एक विशाल सागर
जिसमें हाथ-पैर मारता
एक प्राणी

इतना फैला बृहद
कि उस प्राणी का अस्तित्व
शायद एक बूंद से भी कम है
और वो सागर

तुम हो
जिसे इतना जाना पहचाना समीप से
अपना जाना मोती के सीप से
अब कहाँ विस्तृत हो गई हो
व्यक्त से अव्यक्त
स्मृति को विस्मृत हो गई हो

मैं इतना छोटा हो गया था
अपने आप में
तुम्हारी एक लहर तो तुम समझ बैठा था

सागर की तरंगों को
मेरा प्रयास समझ बैठा था

अब सिर्फ लटका हुआ हूँ
किसी सतह पर
जबकि नीची कितना नीलापन
कितनी गहराई
कितना छिपा हुआ अदेखा अजाना

और यदि बचना भी चाहूँ
तो चारों ओर किधर जा पाऊँगा
इस अनंत का कोई तट नहीं मेरे सिवा

और ऊपर क्या
तुम्हारा ही तो दर्पण आँखों में ताकता
तुम्हारा ही नील पिए शिव
झुके तुम्हीं में खोए
तुम्हारा प्रतिबिम्बन

क्या करूँ अब
तुम्हें तो पी भी नहीं पा रहा हूँ
असंयमी
मेरा तुच्छ अस्तित्व
तुम्हें समाहित करने के योग्य नहीं
तुम्हारा साक्षात्कार तुम बनने का योग नहीं

कैसे डूबूं? लगाऊँ गहन गोत?
कैसी पहुँचूं अपना ही स्रोत?

बस एक सागर लहराता
जिसमें अनथका एक जंतु
और शांत विस्मय मुस्कान
जो तुम हो
दिशाहीन अनायास

परन्तु जो उठ रही थी
तुम्हारे उमड़ने की चाह
उसे अब हाथ जोड़ता हूँ
तैरने का प्रयास ही होगा
अब मेरा वंदन

सब कुछ अर्पण हो
प्रयासहीन हो
चाहे अब ठहराव हो
या स्पंदन

तुम्हारा ही निर्णय होगा
तुम्हारा ही तैराव
बस इतना है तय
जो भी होगा सतह से
उसमें होगा अथाह

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